"वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते" – वैशेषिक दर्शन में वेग, कारण और क्रिया की वैज्ञानिक व्याख्या



"वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते" – वैशेषिक दर्शन में वेग, कारण और क्रिया की वैज्ञानिक व्याख्या

"वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते" एक संस्कृत सूत्र है, जिसका अर्थ है, "वेग निमित्त (कारण) और कर्म (क्रिया) से उत्पन्न होता है।" यह सूत्र महर्षि कणाद द्वारा रचित वैशेषिक दर्शनशास्त्र में वर्णित है, जो भारतीय दर्शन की एक वैज्ञानिक शाखा मानी जाती है।

वैशेषिक दर्शन क्या है?

वैशेषिक दर्शन छह प्रमुख भारतीय दर्शनों (षड्दर्शन) में से एक है। इसकी स्थापना महर्षि कणाद ने की थी। यह दर्शन भौतिक तत्वों, उनके गुणों, क्रिया, और आत्मा जैसे विषयों की तात्त्विक विवेचना करता है। वैशेषिक दर्शन को वैज्ञानिक सोच का प्रारंभिक रूप भी कहा जा सकता है।

सूत्र का वैज्ञानिक विश्लेषण

इस सूत्र में तीन मुख्य तत्वों की बात की गई है:

  1. वेग (Motion)
  2. निमित्त (Cause)
  3. कर्म (Action)

1. वेग (Motion) क्या है?

वैशेषिक दर्शन में वेग को किसी वस्तु की गति या मूवमेंट के रूप में परिभाषित किया गया है। यह गति तभी उत्पन्न होती है जब कोई बाहरी कारण या प्रेरणा (निमित्त) उसे क्रियाशील करता है।

2. निमित्त (Cause) का महत्व

निमित्त वह बाहरी बल या कारण है, जो किसी वस्तु को गति प्रदान करता है। आधुनिक विज्ञान में इसे फोर्स (Force) कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब कोई गेंद लात मारने पर चलती है, तो लात मारना 'निमित्त' कहलाएगा।

3. कर्म (Action) से वेग का जन्म

जब निमित्त कार्य करता है, तब किसी वस्तु में कर्म (क्रिया) उत्पन्न होती है, और उसी से वेग का जन्म होता है। यह प्रक्रिया न्यूटन के प्रथम नियम (Newton’s First Law of Motion) की तरह लगती है – "कोई वस्तु तब तक विराम या एकसमान गति में रहती है, जब तक उस पर कोई बाहरी बल कार्य न करे।"

आधुनिक विज्ञान और वैशेषिक दर्शन की संगति

यह अद्भुत है कि हजारों साल पहले, भारतीय ऋषियों ने गति और बल के बीच संबंध को इतनी वैज्ञानिक दृष्टि से समझा। वैशेषिक सूत्रों में गति के प्रकार, गुण, कारण और परिणामों की वैज्ञानिक परिभाषा मिलती है, जो आधुनिक भौतिकी (Physics) के सिद्धांतों से मेल खाती है।

क्यों महत्वपूर्ण है यह सूत्र आज के युग में?

  • यह सूत्र विज्ञान और दर्शन के संगम को दर्शाता है।
  • छात्रों के लिए यह भारतीय वैज्ञानिक विरासत को समझने का माध्यम है।
  • यह दिखाता है कि भारतीय ज्ञान प्रणाली कितनी गहन और वैज्ञानिक थी।

निष्कर्ष (Conclusion)

"वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते" केवल एक दार्शनिक वाक्य नहीं, बल्कि भारतीय विज्ञान की सूक्ष्म समझ का प्रतीक है। महर्षि कणाद ने वैशेषिक दर्शन के माध्यम से जो सिद्धांत प्रतिपादित किए, वे आज भी विज्ञान, भौतिकी, और तर्कशास्त्र के लिए प्रेरणास्रोत हैं।

वैशेषिक दर्शन में महर्षि कणाद ने जगत की तात्त्विक व्याख्या के लिए कई महत्वपूर्ण नियम और सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं। यह दर्शन मुख्यतः पदार्थ, उसके गुण, क्रिया, समय, दिशा, आत्मा आदि तत्वों का विश्लेषण करता है। नीचे वैशेषिक दर्शन के कुछ प्रमुख नियम (सूत्रों के रूप में) दिए गए हैं:


1. पदार्थ (Dravya) का सिद्धांत

वैशेषिक दर्शन में 9 प्रकार के पदार्थ माने गए हैं:
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन

ये सभी अस्तित्व के आधार हैं।


2. गुण (Guna) का सिद्धांत

गुण वह होता है जो पदार्थ में रहता है लेकिन क्रिया नहीं करता। 24 गुणों की सूची दी गई है जैसे –
रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयास, धर्म, अधर्म, संस्कार, गुरुत्व, द्रवत्व, स्निग्धत्व, संख्यात


3. क्रिया (Karma) का सिद्धांत

पदार्थों में क्रिया (गति/एक्शन) भी मानी जाती है। 5 प्रकार की क्रियाएँ बताई गई हैं:
उत्क्षेपण (उपरि जाना), अपक्षेपण (नीचे गिरना), आकुञ्चन (सिकुड़ना), प्रसारण (फैलना), गमन (चलना)


4. समवाय (Inherence)

समवाय वह अविनाभाव संबंध है जो गुण और पदार्थ, या क्रिया और पदार्थ में होता है।

जैसे रंग और कपड़ा – रंग कपड़े में समवाय से जुड़ा है।


5. अभाव (Non-existence)

वैशेषिक दर्शन में अभाव को भी एक तत्व माना गया है। यह 4 प्रकार का होता है:

  • प्रागभाव – पहले न होना
  • प्रध्वंसाभाव – बाद में न होना
  • त्यागाभाव – अलग किया गया अभाव
  • अनन्याभाव – केवल वही है, और कुछ नहीं

6. परमार्थिक सृष्टि का नियम

सृष्टि का आरंभ परमाणुओं (Atoms) के संयोग से हुआ है।

कणाद ने सबसे पहले परमाणुवाद का सिद्धांत दिया, जिसमें कहा गया कि सभी पदार्थ परमाणुओं से बने हैं।


7. हेत्वाभास और तर्क

वैशेषिक दर्शन में युक्ति, अनुमान और प्रत्यक्ष ज्ञान को महत्त्व दिया गया है। न्याय दर्शन के साथ मिलकर यह ज्ञानमीमांसा की गहराई तक जाता है।


8. आत्मा और पुनर्जन्म का सिद्धांत

आत्मा को एक स्वतंत्र, नित्य तत्व माना गया है। वह कर्म के अनुसार जन्म लेती है।


शुरुआत करते हैं वैशेषिक दर्शन के पहले प्रमुख तत्व "द्रव्य" (Dravya) से:


1. द्रव्य (Dravya) – पदार्थ

द्रव्य का अर्थ होता है – वह मूल तत्व जिसमें गुण और क्रिया रहते हैं और जिनके आधार पर सृष्टि की रचना होती है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य ही सभी वस्तुओं का आधार है। इसमें बिना द्रव्य के कोई गुण या क्रिया नहीं हो सकती।

महर्षि कणाद ने 9 प्रकार के द्रव्यों का उल्लेख किया है:

  1. पृथ्वी (Earth) – इसमें गंध, रंग, रस और स्पर्श सभी गुण पाए जाते हैं। जैसे – मिट्टी, पत्थर, लोहा आदि।
  2. आप (जल / Water) – इसमें रस, स्पर्श, रंग और तरलता होती है।
  3. तेज (Fire) – यह गर्मी और प्रकाश देने वाला तत्व है, इसमें रूप और स्पर्श प्रमुख गुण हैं।
  4. वायु (Air) – यह चलायमान और अदृश्य तत्व है, जिसमें केवल स्पर्श गुण होता है।
  5. आकाश (Ether / Space) – इसमें केवल शब्द (sound) गुण होता है। यह सब कुछ धारण करने वाला है।
  6. काल (Time) – यह परिवर्तन का कारण है और वस्तुओं के पूर्व, वर्तमान और भविष्य को दर्शाता है।
  7. दिशा (Direction) – यह स्थान का ज्ञान कराने वाली शक्ति है।
  8. आत्मा (Soul) – यह चेतन तत्व है, जो अनुभव, ज्ञान, इच्छा आदि का धारक है।
  9. मन (Mind) – यह अत्यंत सूक्ष्म और एकदेशी द्रव्य है, जो आत्मा और इंद्रियों के बीच संपर्क स्थापित करता है।

निष्कर्ष: द्रव्य वे आधारभूत तत्त्व हैं जिनके बिना कोई वस्तु या अनुभव संभव नहीं। ये द्रव्य स्थायी माने गए हैं और इन्हीं से संसार की रचना होती है।

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अब समझते हैं वैशेषिक दर्शन का दूसरा प्रमुख तत्व:


2. गुण (Guna) – विशेषताएँ या Properties

गुण का अर्थ होता है किसी द्रव्य में विद्यमान ऐसी विशेषताएँ जो स्वयं क्रिया नहीं करतीं, लेकिन द्रव्य की पहचान कराती हैं। ये द्रव्य में समवाय संबंध से विद्यमान रहते हैं और बिना द्रव्य के अस्तित्वहीन माने जाते हैं।

गुण न तो स्वतंत्र रूप से मौजूद हो सकते हैं, न ही वे किसी अन्य गुण या क्रिया का आधार बन सकते हैं।

महर्षि कणाद ने 24 प्रमुख गुणों का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित हैं:

  1. रूप (Color) – जैसे सफेद, काला, नीला आदि।
  2. रस (Taste) – जैसे मधुर, अम्ल, लवण, कटु आदि।
  3. गंध (Smell) – जैसे सुगंध, दुर्गंध आदि।
  4. स्पर्श (Touch) – जैसे शीतलता, ऊष्णता, रूक्षता आदि।
  5. संख्या (Number) – जैसे एक, दो, तीन आदि।
  6. परिमाण (Dimension/Size) – जैसे लंबाई, चौड़ाई, मोटाई आदि।
  7. पृथक्त्व (Separateness) – अलग-अलग वस्तुओं की विशिष्ट पहचान।
  8. संयोग (Conjunction) – दो वस्तुओं का एक साथ जुड़ना।
  9. विभाग (Disjunction) – दो वस्तुओं का अलग होना।
  10. परत्व (Remoteness) – दूरी को दर्शाने वाला गुण।
  11. अपरत्व (Nearness) – समीपता को दर्शाने वाला गुण।
  12. गुरुत्व (Heaviness)
  13. द्रवत्व (Fluidity)
  14. स्निग्धत्व (Viscosity/Oiliness)
  15. संस्कार (Impression/Disposition) – जैसे स्मृति या आदत।
  16. बुद्धि (Knowledge)
  17. सुख (Pleasure)
  18. दुःख (Pain)
  19. इच्छा (Desire)
  20. द्वेष (Aversion)
  21. प्रयत्न (Effort)
  22. धर्म (Merit)
  23. अधर्म (Demerit)
  24. संसकार (Tendency/Impression)

नोट: इनमें से कई गुण स्थूल पदार्थों में होते हैं और कुछ सूक्ष्म तत्वों (जैसे आत्मा, मन) में होते हैं।


निष्कर्ष: गुण वे विशेषताएँ हैं जिनसे किसी द्रव्य को पहचाना जाता है। इनका अस्तित्व केवल द्रव्य के साथ ही संभव है।


अब बढ़ते हैं तीसरे तत्व की ओर:


3. कर्म (Karma) – क्रिया या गति

कर्म का अर्थ है – द्रव्य में होने वाली वह गति या परिवर्तन जो उसे किसी विशेष अवस्था में पहुँचाता है। वैशेषिक दर्शन में कर्म को द्रव्य का एक विशेष गुण माना गया है, लेकिन यह गुणों से भिन्न है क्योंकि यह द्रव्य को परिवर्तनशील बनाता है।

महर्षि कणाद ने पाँच प्रकार की क्रियाओं का वर्णन किया है, जो इस प्रकार हैं:

  1. उत्क्षेपण (Utkṣepaṇa) – ऊपर की ओर जाना। जैसे – कोई गेंद ऊपर फेंकी जाए।
  2. अपक्षेपण (Apakṣepaṇa) – नीचे गिरना। जैसे – सेब का पेड़ से नीचे गिरना।
  3. गमन (Gamana) – एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर गति करना। जैसे – मनुष्य का चलना।
  4. आकुञ्चन (Ākuñcana) – सिकुड़ना। जैसे – रबर का बैंड खिंचने के बाद छोटा होना।
  5. प्रसारण (Prasāraṇa) – फैलना। जैसे – गर्म होने पर धातु का फैलना।

कर्म की विशेषताएँ:

  • यह सिर्फ द्रव्य में होता है।
  • यह द्रव्य और अन्य गुणों को एक-दूसरे से संयोजित करता है।
  • कर्म के माध्यम से ही वस्तुओं की गति और उनका स्थानांतरण होता है।
  • यह परिवर्तन और सृष्टि की गति का मूल कारण है।

निष्कर्ष: कर्म के बिना संसार में कोई गति या क्रियात्मक परिवर्तन संभव नहीं। यह तत्व संसार की गत्यात्मकता (dynamicity) को दर्शाता है।


अब जानते हैं वैशेषिक दर्शन का चौथा महत्वपूर्ण तत्व:


4. समवाय (Samavāya) – अविनाभाव संबंध (Inherence)

समवाय का अर्थ होता है – ऐसा अविनाभाव संबंध जिसमें दो वस्तुएँ इस प्रकार जुड़ी होती हैं कि उनका अलग-अलग अस्तित्व नहीं हो सकता, और यदि एक नष्ट हो जाए तो दूसरा भी नष्ट हो जाता है। इसे 'अनित्य संयुक्तता' भी कहा जाता है।

यह संबंध दो वस्तुओं के बीच स्थायी, अटूट और अपरिवर्तनीय होता है।


समवाय संबंध के उदाहरण:

  1. गुण और द्रव्य का संबंध – जैसे, नीला रंग और फूल। नीला रंग (गुण) अपने आप नहीं रह सकता, वह हमेशा किसी द्रव्य (फूल) में ही होता है।
  2. क्रिया और द्रव्य का संबंध – जैसे चलना (क्रिया) और मनुष्य (द्रव्य)।
  3. अवयव और अवयवी का संबंध – जैसे, धागे और कपड़ा। धागे अवयव हैं और उनका समवाय संबंध कपड़े (अवयवी) से है।
  4. शब्द और आकाश का संबंध – आकाश में ही शब्द गूंज सकता है, अतः इन दोनों का समवाय संबंध है।
  5. परमाणु और पदार्थ का संबंध – परमाणुओं से जो यौगिक पदार्थ बनता है, उनका आपस में समवाय संबंध होता है।

समवाय की विशेषताएँ:

  • यह नित्य (eternal) होता है – यह जन्मा नहीं जाता, नष्ट नहीं होता।
  • यह केवल एक ही प्रकार की वस्तुओं में होता है, जैसे – गुण हमेशा किसी द्रव्य में ही होगा।
  • यह एक वस्तु को दूसरी में अवस्थित करता है, जैसे – गुण का स्थान द्रव्य में होता है।

निष्कर्ष: समवाय वह गहरा और अटूट संबंध है जो किसी वस्तु को उसकी वास्तविकता और पहचान देता है। यह दर्शाता है कि कुछ तत्वों का अस्तित्व केवल परस्पर जुड़ाव में ही संभव है।


अब समझते हैं वैशेषिक दर्शन का पाँचवाँ और अंतिम प्रमुख तत्व:


5. अभाव (Abhāva) – अभाव या निषेध (Non-existence)

अभाव का शाब्दिक अर्थ है – "अनुपस्थिति", अर्थात किसी वस्तु का न होना।
वैशेषिक दर्शन में 'अभाव' को भी एक वास्तविक तत्त्व माना गया है – यानी 'जो नहीं है', उसका भी बोध होता है और वह भी ज्ञान का विषय बनता है।

उदाहरण:
आप कहते हैं – "कप में पानी नहीं है।"
यह "नहीं होना" भी एक अनुभव है, जिसे वैशेषिक दर्शन में एक स्वतंत्र तत्व के रूप में मान्यता मिली है।


अभाव के चार प्रकार:

  1. प्रागभाव (Prāgabhāva) – किसी वस्तु के निर्माण से पहले का अभाव।
    • जैसे मिट्टी के बर्तन के बनने से पहले उसका अभाव था।
  2. प्रध्वंसाभाव (Pradhvaṃsābhāva) – किसी वस्तु के नष्ट हो जाने के बाद उसका अभाव।
    • जैसे बर्तन टूट जाने के बाद उसका अभाव।
  3. त्यागाभाव (Tyāgābhāva) – जब कोई वस्तु किसी स्थान से हटा दी जाती है और वहाँ उसका अभाव हो।
    • जैसे – किताब को मेज़ से हटा देने के बाद मेज़ पर उसका अभाव।
  4. अनन्यत्वाभाव (Ananyatvābhāva) – एक वस्तु दूसरी से भिन्न है, इस भिन्नता का बोध।
    • जैसे – गाय, घोड़ा नहीं है। यहाँ ‘गाय’ में ‘घोड़ा’ का अभाव है।

अभाव की विशेषताएँ:

  • अभाव कोई शून्यता नहीं है, बल्कि एक बौद्धिक धारणा है जो अनुभव और ज्ञान के स्तर पर महसूस होती है।
  • यह भी अन्य तत्त्वों की भाँति अनुभव किया जा सकता है, इसलिए इसे भी तत्त्वों में स्थान मिला।

निष्कर्ष:
अभाव हमें यह समझने में मदद करता है कि "जो नहीं है", वह भी हमारे ज्ञान और तर्क का हिस्सा है। यह दर्शन की गहराई को दर्शाता है. जहाँ 'अस्तित्व' और 'अनस्तित्व' दोनों का विश्लेषण किया गया है।


FAQs:

Q1. महर्षि कणाद कौन थे?
महर्षि कणाद प्राचीन भारत के महान ऋषि और वैज्ञानिक दार्शनिक थे। उन्होंने वैशेषिक दर्शन की रचना की, जिसमें पदार्थ, गुण, क्रिया और गति जैसे विषयों पर चर्चा की गई है।

Q2. वैशेषिक दर्शन का आधुनिक विज्ञान से क्या संबंध है?
वैशेषिक दर्शन में गति, बल, कारण-कार्य संबंधों को जिस प्रकार समझाया गया है, वह आधुनिक भौतिकी के सिद्धांतों से मेल खाता है।

Q3. "वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते" का सरल अर्थ क्या है?
वेग किसी क्रिया और उसके कारण से उत्पन्न होता है। जब कोई वस्तु किसी कारणवश क्रियाशील होती है, तभी उसमें गति आती है।


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